साहित्य संवर्धन यात्राएं
प्रमुख उद्बोधन
लेखक में अपनी संस्कृति, धर्म, इतिहास व परिवेश की अभिज्ञता होनी ही चाहिये। इस अभिज्ञता से ही यथार्थपरक, वास्तविक लेखन संभव होता है। ऐसा लेखन ही पाठक को अपना लगता है, प्रभावित करता है। इधर कुछ समय से इस सबसे दूरी बनाते हुए बंद कमरे में बैठ कर उद्देश्य विशेष से अथवा समय काटने के लिये लेखन किया जा रहा है। अथवा लेखन के लिये लेखन किया जा रहा है। यह भी कह सकते हैं कि अंदर की भड़ास कागजों पर उतारी जाती है। साहित्य के प्रकारों में यात्रावृत्त एक प्रकार है। भारतीय साहित्य में यात्रावृत्त अभी तक उपेक्षित ही रहा है। साथ ही परिवेश से जुड़ कर अनुभूत साहित्य लेखन की प्रवृत्ति भी कम दिखायी देती है।
अनुभवजन्य, परिवेश से जुड़ा लेखन प्रत्यक्ष आंखों से देखा हुआ ही हो सकता है। परिवेश से जुड़ाव परिव्राजन से ही संभव है। यात्रा से ज्ञान बढ़ता है। यात्रा से समझ बढ़ती है। यात्रा से जानकारी मिलती है। यात्रा से अनुभव मिलता है। यात्रा से देश, समाज, संस्कृति, रीति-रिवाज और परम्पराओं को समीप से देखने का अवसर मिलता है। यात्रा केवल मौज मजे के लिये अथवा स्थान परिवर्तन के लिये न होकर सोद्देश्य हो तो उपरोक्त लाभ बहुगुणित हो जाते हैं।
इसी कारण साहित्य परिषद ने यात्रा के कार्यक्रम साहित्य संवर्द्धन के उद्देश्य से शुरू किये हैं। वैसे भी भारतीय साहित्य में यात्रा साहित्य की ओर कम ही ध्यान दिया गया है। प्रसन्नता का विषय है कि परिषद के इस उपक्रम को अच्छा प्रतिसाद मिला है। जहाँ एक ओर साहित्यकारों ने इस उपक्रम में बढ़-चढ़ कर सहभागिता की है और यात्रा के अनुभव को अपनी साहित्यिक विधा में लिखने के लिये प्रवृत्त हुए हैं, वहीं सुधी पाठकों ने साहित्यकारों के यात्रानुभवों को पढ़ने में रूचि दिखायी है। इससे यात्रा साहित्य में अभिवृद्धि के साथ-साथ परिषद का भी उत्साहवर्धन हुआ है। इसी कारण परिषद के नीति-निर्धारकों ने इस उपक्रम को सतत चलाने का निर्णय लिया। इस दृष्टि से परिषद का प्रयास रहा है कि साहित्यकार स्थान विशेष पर जाकर वहाँ के निवासियों से चर्चा करे, परिस्थिति का आकलन करे, परम्पराओं को जाने और फिर लेखन कार्य सम्पादित करे।
साहित्य संवर्द्धन यात्राओं के कारण वहाँ के साहित्यकारों तथा साहित्यिक संस्थाओं से परिचय तो होता ही है, परिषद के वृहत कार्य की जानकारी देना भी संभव हो पाता है। साहित्य संवर्द्धन यात्रा आयोजन के अन्तर्गत परिषद के साहित्यकारों ने देश में ही नहीं विदेश में भी यात्रा कर साहित्य संवर्द्धन किया है।
देशी यात्राएँ
लाहौल-स्पीति: साहित्य परिषद ने इस दृष्टि से केन्द्रीय स्तर पर अत्यन्त प्रतिकूल वातावरण वाले सुदूरवर्ती लाहौल-स्पीति की चार दिवसीय यात्रा (10 से 13 अगस्त 2012) की गयी। इस यात्रा में 12 साहित्यकार सदस्य सम्मिलित हुए। इस यात्रा में पर्यटन स्थल मनाली, लाहौल का केन्द्र स्थान केलांग, ऐतिहासिक नगर उदयपुर, प्राचीन गोम्फा गुरू घण्टाल, सीमावर्ती ग्राम कुठार, तीर्थस्थल त्रिलोकीनाथ का भ्रमण और स्थानीय लोगों से बात कर लेखन कार्य के लिये सामग्री जुटाई। केलांग में साहित्यकारों के साथ चर्चा और कवि गोष्ठी हुई। यात्रा के दौरान साहित्यकारों ने हिमाचली स्वागत पद्धति, पहाड़ी परिवार, स्थानीय भोजन को जाना भी और आस्वाद भी लिया। पर्यटन के दुष्परिणाम और भविष्य की संभावना पर बातचीत की।
नड़ाबेट: गुजरात में पाकिस्तानी सीमा के समीप नड़ाबेट की 27 से 30 सितंबर 2012 की यात्रा की गयी। यात्री दल में 12 सदस्य थे। नड़ाबेट, भरणवा, चारणका, मोढेरा, रानी की वाव स्थान देखे गये। एक दिन केवल गांव के लिये रखा गया था। तीन समूह बनाकर अलग-अलग गांवों में सम्पर्क किया गया और सायंकाल काफी समय एक परिवार में गुजार कर सारी चर्या को समीप से जानने की कोशिश की। नड़ाबेट में एक रात कच्छ की मरूभूमि पर यात्री दल ने चांद के प्रकाश में कवि गोष्ठी की और एक रात्रि नरेश्वरी मंदिर में गुजराती लोक गीतों का आनन्द लिया गया।
जगन्नाथपुरी: सांस्कृतिक नगरी जगन्नाथपुरी की यात्रा 28 नवंबर से 1 दिसंबर 2013 तक यात्रा कर यात्रावृत्त तैयार किये। इस यात्रा में जगन्नाथपुरी, भुवनेश्वर, कोणार्क स्थान देखे गये। भुवनेश्वर में दो साहित्यिक संस्थाओं में साहित्यकारों से परिचय तथा साहित्यिक चर्चा की गयी। जगन्नाथपुरी में स्थानीय साहित्यकारों के साथ विमर्श किया गया। एक दिन मछुआरों की बस्ती में सम्पर्क और एक दिन चिल्का झील में विहार व ग्राम सम्पर्क किया गया।
अंदमान: राष्ट्रतीर्थ अंदमान देशभक्तों के खून-पसीने का जीवन्त स्मारक है। देशभक्ति का भाव साहित्यकारों में उत्पन्न करने तथा पाठको तक पहुँचाने के लिये अंदमान की यात्रा की गई। राष्ट्रतीर्थ अंदमान की यात्रा में 9 साहित्यकार सम्मिलित हुए। यह यात्रा 22 सितंबर से 26 सिंतबर 2015 के बीच की गयी। 5 दिवसीय यात्रा में पोर्टब्लेयर, सेल्यूलर जेल, द्वितीय विश्वयुद्ध में हुई बमबारी का साक्षी चाथम द्वीप, अंग्रेजों के प्रमुख केन्द्र राॅस द्वीप, हैवलाॅक द्वीप, समुद्री जीवों का म्यूजियम, राधानगर बीच, लाइम केव की यात्रा की गयी। कालापानी सजा के भुक्तभोगियों के परिवारों से चर्चा की गयी। एक रात्रि अंदमान की प्रमुख साहित्यिक संस्था के माध्यम से साहित्यकारों से सम्पर्क व चर्चा का कार्यक्रम रखा गया था।
हाॅफलांग-असम: असम का सीमावर्ती क्षेत्र है हाॅफलांग। स्थान दुर्गम है और जनजातियों का इलाका है। एक अलग वातावरण का, प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर पर हिन्दी जानने वालों का स्थान है हाॅफलांग। जनजातिय विद्यार्थियों के ग्रामीण विद्यालय, छात्रावास देखे। दो दिन इन छात्रावासों में निवास भी किया। एक दिन जनजातिय बंधुओं के साथ उनके घर अर्थात् झोपड़ियों में रहने और उनके साथ उनका भोजन करने की योजना भी की गयी थी। हरे-भरे चाय बागान में स्वच्छन्द घूमने का आनन्द भी उठाया गया। पक्षियों के काल जटिंगा को देखना विचित्र था। विद्यालय जाकर बच्चों से चर्चा का अनुभव आल्हादकारी था।
जौनसार-उत्तराखण्ड: उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून से सटा जौनसार जनजातिय, पहाड़ी व पौराणिक स्थान है। संयुक्त परिवार, बहुपति प्रथा जैसी अनेक सामाजिक विशेषताओं से भरा है जौनसार। देहरादून, सहस्रधारा, दर्शनीय पर्यटन स्थलों में प्रसिद्ध मसूरी और चकराता, महाभारतकालीन लाखामण्डल, महाराज शीलवर्मन के अश्वमेध यज्ञ स्थल, अशोक स्तम्भ कालसी का भ्रमण किया गया। पाण्डवकालीन घटनाओं से जुड़े स्थान व अवशेषों ने महाभारत की याद ताजा कर दी। संयुक्त परिवार के लिये प्रसिद्ध चिल्हड़ ग्राम जाकर संयुक्त परिवार के सदस्यों से चर्चा अद्भुत रही। 3 किलोमीटर की ऊँचाई पर स्थित टयूटाड ग्राम जाकर स्थानीय परंपराओं को जाना तथा पहाड़ी भोजन का आनन्द लिया। जौनसार के देवता ‘म्हासू’ के दर्शन उनके वासस्थान हनोल जाकर किये। यह यात्रा दिनांक 10 से 13 सितंबर 2016 को संपन्न हुई।
झाबुआ-मध्यप्रदेश: आदिवासी बहुल झाबुआ की यात्रा अपने-अपने आप में एक अलग अनुभव था, जिसे साहित्यकारों ने प्रत्यक्ष अनुभव किया। आदिवासी बहुलता वाले स्थान की चार दिवसीय यात्रा साहित्यकारों ने की। आधुनिक सुविधाओं से दूर वनवासियों के घरों में रहते हुए उनके जीवन को जानने का प्रयास किया गया। यात्रा में सार प्रसिद्ध भगोरिया उत्सव, जैन तीर्थ बावन गजा में एक पत्थर में बनी 52 गज की तीर्थंकर आदिनाथ की प्रतिमा, अमर क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद की जन्मस्थली, ठीकरी में गाड़े खींचे जाने के अद्भुत कार्य का जायजा लिया। तीन गाँवों में वनवासियों से चर्चा भी की गयी। प्रत्येक स्थान पर साहित्य परिषद की इकाइयों ने परिचय कार्यक्रम भी रखे थे।
अवध: दिनांक 22 अक्टूबर से 24 अक्टूबर 2018 तक अवध प्रान्त की साहित्यिक यात्रा की गयी। इस यात्रा में अयोध्या के दर्शन के अतिरिक्त उस गाँव में ग्रामीणों से चर्चा की गयी जहाँ से कारसेवकों की गतिविधियों का संचालन हुआ था। ग्रामीणों ने कारसेवा के अनुभव बड़े उत्साह से सुनाये, ऐसा लग रहा था जैसे सब कुछ कल ही घटित हुआ हो। उन्नाव जिला साहित्यकारों का जिला रहा है। जिले के आठ प्रमुख साहित्यकारों के गाँव जाकर उनके स्मारक के दर्शन और उन साहित्यकारों के बारे में चर्चा की गयी। मार्ग में बाराबंकी के ऐतिहासिक स्थानों को देखते हुए यात्रा नैमिष्यारण्य की ओर बढ़ी। नैमिष्यारण्य में धार्मिक स्थलों के दर्शन, चक्रतीर्थ में आरती का आनन्द लिया। एक वृद्धाश्रम के अन्तवासियों से साक्षात्कार ने साहित्यकारों को अन्दर-बाहर से हिला दिया।
चंबा: दिनांक 24 जून से 28 जून 2018 की चार दिवसीय यात्रा हिमाचल के चंबा जिले की की गयी। यात्रा का प्रारंभ पठानकोट स्थित भारत पाकिस्तान सीमा के अवलोकन से किया गया। टिन्डा, पर्यटन स्थल खजिहार और डलहोती, बनीखेत का नाग मेला, घने जंगलों से घिरे कालाटोप का अवलोकन किया। चंबा का म्यूजियम हिमाचली संस्कृति का परिचय और दर्शन कराने वाला है। चंबा में स्थानीय साहित्यकारों की ओर से यात्री दल का सम्मान किया गया और एक गोष्ठी का आयोजन भी किया गया था। मार्ग में चमेरा स्थित बांध और उससे जुड़े पर्यटन स्थल को देखा।
अनुभवजन्य, परिवेश से जुड़ा लेखन प्रत्यक्ष आंखों से देखा हुआ ही हो सकता है। परिवेश से जुड़ाव परिव्राजन से ही संभव है। यात्रा से ज्ञान बढ़ता है। यात्रा से समझ बढ़ती है। यात्रा से जानकारी मिलती है। यात्रा से अनुभव मिलता है। यात्रा से देश, समाज, संस्कृति, रीति-रिवाज और परम्पराओं को समीप से देखने का अवसर मिलता है। यात्रा केवल मौज मजे के लिये अथवा स्थान परिवर्तन के लिये न होकर सोद्देश्य हो तो उपरोक्त लाभ बहुगुणित हो जाते हैं।
इसी कारण साहित्य परिषद ने यात्रा के कार्यक्रम साहित्य संवर्द्धन के उद्देश्य से शुरू किये हैं। वैसे भी भारतीय साहित्य में यात्रा साहित्य की ओर कम ही ध्यान दिया गया है। प्रसन्नता का विषय है कि परिषद के इस उपक्रम को अच्छा प्रतिसाद मिला है। जहाँ एक ओर साहित्यकारों ने इस उपक्रम में बढ़-चढ़ कर सहभागिता की है और यात्रा के अनुभव को अपनी साहित्यिक विधा में लिखने के लिये प्रवृत्त हुए हैं, वहीं सुधी पाठकों ने साहित्यकारों के यात्रानुभवों को पढ़ने में रूचि दिखायी है। इससे यात्रा साहित्य में अभिवृद्धि के साथ-साथ परिषद का भी उत्साहवर्धन हुआ है। इसी कारण परिषद के नीति-निर्धारकों ने इस उपक्रम को सतत चलाने का निर्णय लिया। इस दृष्टि से परिषद का प्रयास रहा है कि साहित्यकार स्थान विशेष पर जाकर वहाँ के निवासियों से चर्चा करे, परिस्थिति का आकलन करे, परम्पराओं को जाने और फिर लेखन कार्य सम्पादित करे।
साहित्य संवर्द्धन यात्राओं के कारण वहाँ के साहित्यकारों तथा साहित्यिक संस्थाओं से परिचय तो होता ही है, परिषद के वृहत कार्य की जानकारी देना भी संभव हो पाता है। साहित्य संवर्द्धन यात्रा आयोजन के अन्तर्गत परिषद के साहित्यकारों ने देश में ही नहीं विदेश में भी यात्रा कर साहित्य संवर्द्धन किया है।
विदेश यात्राएं
श्रीलंका: भगवान श्रीराम की कथा साहित्यकारों के लेखन का प्रिय विषय रहा है। लेकिन रामकथा का उत्तरार्ध जिस भूमि पर घटित हुआ उसका प्रत्यक्ष दर्शन कतिपय साहित्यकारों ने ही किया होगा। उन स्थलों का प्रत्यक्ष दर्शन करने और वास्तविकता से दो-चार होने के उद्देश्य से साहित्य परिषद के 12 साहित्यकारों के दल ने श्रीलंका की 10 दिवसीय यात्रा दिनांक 10 दिसम्बर से 18 दिसम्बर 2013 को की। इस सीमित अवधि में रामयाण में उल्लेखित 58 स्थानों में से 18 स्थानों का भ्रमण किया। इस दौरान कोलम्बो (विश्वविद्यालय, विभीषण राज्याभिषेक स्थल, स्वामी विवेकानन्द विश्राम स्थल), तिरूकेथिश्वरम् (शिव मंदिर), अनुराधापुर (बौद्ध स्तूप), त्रिकोणेश्वर (रावण पूजित शिवलिंग), केनिया (गरम जल स्रोत), पोलनरूवा (पुलस्त्य प्रतिमा), सिगरिया (रावण किला), केन्डी (बुद्ध अवशेष), रामबोधा (हनुमान विश्राम स्थल), नोरोविला (अशोक वाटिका), डेरूमपोला (सीता अग्निपरीक्षा स्थल), कतरगमा (कार्तिकेय स्थल), उसगंडा (लंका दहन स्थल), रूमासला (संजीवनी पर्वत) की यात्रा की।
यात्रा के दौरान 3 श्रीलंकाई परिवारों में भोजन, एक परिवार में निवास भी किया। कोलंबों विश्वविद्यालय में हिन्दी के छात्र-छात्राओं से साक्षात्कार हुआ। एक संसद सदस्य से भेट की। श्रीलंका सरकार के हिन्दू विभाग की ओर से श्रीलंकाई साहित्यकारों से परिचय तथा चर्चा की व्यवस्था की गयी थी।
इंग्लैण्ड: ब्रिटेन में अप्रवासी भारतीयों की संख्या पर्याप्त है। लंबे समय से परदेश में रहते हुए भी अपनी भाषा एवं संस्कृति से प्रयत्नपूर्वक जुड़े हुए हैं। वे साहित्य लेखन मातृभाषा में ही कर रहे हैं। ऐसे लोगों से प्रत्यक्ष मिल कर चर्चा करने के लिये इंग्लैण्ड की यात्रा दिनांक 23 जुलाई से 6 अगस्त 2014 तक की परिषद ने की है। इस यात्रा में 5 सदस्य सम्मिलित हुए थे। लंदन में निवास की व्यवस्था भारतीयों के घर पर की गयी थी। एक पूरा दिन शेक्सपियर के स्थान को देखने के लिये रखा गया था। इसी प्रकार लंदन में वीर सावरकर का निवास इंडिया हाउस के दर्शन किये।
वर्तमान में परिषद संरक्षक डॉ. बलवन्त जानी ने छह वर्ष के अनथक प्रयास से अप्रवासी भारतीयों के साहित्य पर तीन ग्रंथ गुजराती भाषा में तैयार किये हैं। इनका लोकार्पण इंग्लैण्ड के लंदन, बर्मिंघम, लिस्टर, शहरों में यात्रा के दौरान किया गया।
ब्रिटेन और श्रीलंका यात्रा के यात्रावृत्त ‘देशान्तर’ नाम से प्रकाशित हो चुके हैं। पाठको ने भी इन यात्रावृत्तों को हाथों-हाथ लेने के परिणाम स्वरूप इसका दूसरा संस्करण भी निकाला गया।
कंबोडिया व थाईलैण्ड: संसार के सबसे बड़े और प्राचीन हिन्दू मंदिर के साथ विदेशस्थ भारतीय संस्कृति के अवशेष देखने कंबोडिया और थाईलैण्ड की यात्रा परिषद से जुड़े 9 साहित्यकारों ने की। 22 फरवरी से 1 मार्च 2018 को यह यात्रा की गयी। अंगकोरवाट का मुख्य मंदिर, बौद्ध विश्वविद्यालय के अवशेष, सिल्क सेन्टर, क्राफ्ट वर्क, जंगल टेंपल तथा दो ग्रामों को देखा। थाईलैण्ड में बुद्ध मंदिर, सफारी, शाॅपिंग माॅल आदि का अवलोकन किया।
इन सारी यात्राओं के बाद यात्रा में साथ रहे साहित्यकार यात्रियों ने अपनी-अपनी विधा में लेखन कार्य किया है और उसे पुस्तक रूप में प्रकाशित किया गया है। अभी तक 1. देशान्तर (श्रीलंका एवं ब्रिटेन), साहित्य संवर्द्धन यात्रा (लाहौल-नड़ाबेट-जगन्नाथपुरी), हाॅफलांग-अंदमान यात्रावृत्त, जौनसार-झाबुआ यात्रावृत्त के नाम से प्रकाशित हुए हैं। शेष प्रकाशनाधीन हैं।
प्रादेशिक यात्राएँ : परिषद ने केन्द्रीय स्तर पर यात्राओं का आयोजन किया और प्रत्येक यात्रा में अलग-अलग प्रेदेशों के कार्यकर्ताओं को सम्मिलित कर यात्राओं के स्वरूप, यात्रा का प्रकार और करणीय कार्य से परिचित कराया। इसका उद्देश्य यह था कि कार्यकर्ता यात्रा में सम्मिलित होकर अनुभव प्राप्त करें और फिर इसी प्रकार अपनी प्रदेशों में भी यात्राओं का आयोजन करें। योजना सफल रही और राजस्थान, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश ने अपने यहाँ साहित्य संवर्द्धन यात्राओं की योजना बनायी। ग्वालियर संभाग के पौराणिक एवं ऐतिहासिक स्थल बटेश्वर, सिंहांनिया, कुन्तलपुर, पढ़ावली की यात्रा तथा महामारी से उजाड़ हुए धुँआ ग्राम की दो यात्राएं की गयीं। चंबल संभाग के ऐतिहासिक गौरव स्थलों की यात्रा पर यात्रावृत्त की सुन्दर पुस्तक भी प्रकाशित हुई है।
साहित्यिक ग्रंथ यात्रा : परिषद द्वारा जनसामान्य में साहित्य के प्रति रूचि उत्पन्न करने, अध्ययन करने के लिये प्रेरित करने और साहित्यिक गतिविधियों के बारे में जाग्रति निर्माण करने की दृष्टि से साहित्यिक ग्रंथों की शोभा यात्रा निकाली जाती हैं। इसका प्रारंभ ग्वालियर से किया गया। संभागीय साहित्यकार सम्मेलन के अवसर पर अलग से समय निकाल कर शोभा यात्रा की व्यवस्था की गयी थी। अलग-अलग रथों पर वेद, रामायण, महाभारत, उपनिषद, पुराण ग्रंथों को सजाया गया था। एक सुसज्जित पालकी पर विद्या की देवी माँ सरस्वती की प्रतिमा रखी गयी थी। शोभा यात्रा में सबसे आगे शहनाई व ढोल-नगाड़े बज रहे थे। उसके बाद साहित्य ग्रंथों के रथ और उसके पीछे अपने-अपने जिले का समूह बना कर साहित्यकार पैदल चल रहे थे। प्रत्येक के गले में भगवा रंग का दुपट्टा था। नगर के प्रमुख मार्गों से शोभा यात्रा निकली जिसका स्थानीय नागरिकों व व्यापारियों ने फूल बरसाकर, पेयजल व शीतल पेय से स्वागत किया।
साहित्यकारों और नागरिकों के अच्छे प्रतिसाद के बाद शोभा यात्रा का दूसरा प्रयोग परिषद के झांसी में हुए अधिवेशन के समय किया गया। तीसरा प्रयोग जबलपुर में संपन्न हुए अधिवेशन के अवसर पर किया गया। अधिवेशन के दौरान निकाली गयी अति भव्य शोभायात्रा अभूतपूर्व रही। इस यात्रा में ग्रंथों के अलावा रथों में वाल्कीकि से लेकर भारतेन्दु तक के कतिपय साहित्यकार तथा महापुरूषों के स्वरूप में बच्चों को सजा कर रथों पर बैठाया गया था। कई बैण्ड भी शोभायात्रा में सुन्दर धुनें बजा रहे थे। महिला साहित्यकार शंखनाद करते हुए चल रही थी। महाकौशल के आदिवासी अपनी पारंपरिक वेशभूषा में वाद्यवादन व दृत्य कर रहे थे। प्रत्येक स्त्री-पुरूष प्रतिनिधि को भगवा रंग की पगड़ी पहनायी गयी थी। जबलपुर की शोभा यात्रा के अनुभव अभी भी प्रतिनिधियों की चर्चा में हैं। अब तो शोभा यात्रा का आयोजन अनेक स्थानों पर होने लगा है।