प्रारंभिक इतिवृत्त
प्रारंभिक इतिवृत्त
भारतीय अंतश्चेतना की एकात्म अनुभूति का साक्षात्कार राष्ट्रीय नवजागरण के साथ ही देश के जागरूक चिन्तकों को होने लगा था। स्वातन्त्र्य संघर्ष की प्रबल प्रेरणा इसी का परिणाम था। स्वत्वबोध भारतीय राष्ट्रीयता का प्रस्थान बिन्दु कहा जा सकता है। मात्र स्वराज्य ही नहीं, स्वतन्त्रता की अवधारणा में भारतीय जनजीवन की समग्रता की स्वीकृति के सशक्त एवं सृजनेछ्वासित बीज निहित थे। इसी कारण नवीन परम्परा के आधुनिक मसीहा इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये बहुमुख आयोजन करते रहे, जिनकी सर्वाधिक समर्थ अभिव्यक्ति स्वामी विवेकानन्द ओर गांधी के चिंतन और कर्म में हुई। साहित्य के क्षेत्र में इस यज्ञ के प्रमुख पुरोधाओं में भारतेन्दु, रवीन्द्रनाथ ठाकुर और सुब्रमण्यम भारती जैसे विश्वविख्यात कवि विशेष रूप से उल्लेख है।
ये सभी आधुनिक साहित्यकार और कवि जहां युग की नव्यतम उपलब्धियों के प्रति संग्रहशील थे, वहां उनमें वाल्मीकि-व्यास-कालिदास-कबीर-सूर और तुलसी की आत्मा तथा भारत और भारती की विवेक ऊर्जा भी प्रवहमान थी। इनकी नवनवोन्मेषालिनी प्रतिभा स्वराज्य का स्वप्न साकार करने का कारण बनी। स्वतंत्रता मिली। स्वतंत्रता के पहले चरण में ही राष्ट्र की प्रेरणाएं और संकल्प या तो ढीले पड़ गये या दिशान्तर की ओर उन्मुख कर दिये गये। साहित्य के आलोक
स्तम्भ या तो दिवंगत हो चुके थे या अवसान के निकट खड़े रहने के कारण अप्रभावी सिद्ध हुए और बुद्धिजीवी कलाकार और कवि चकाचौंध में पड़े हतबुद्धि होकर पश्चिम की अंधानुकृति में ही नवीनता, मौलिकता व महानता खोजते मृगकिरणों के शिकार होकर आत्म-प्रवचना के सुख का भोग करने लगे। पिछली पच्चीसी की पीढ़ी के कुछ लोगों ने एक कटुता का हठपूर्वक लेखन का विषय बनाया किन्तु इब राही लौट चुके है। नया ‘विहान’ आंखें मलकर प्राची से झांकने लगा है।
हुआ यह कि स्वतंत्रता के पश्चात् अभारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार व प्रभाव से साहित्य, साहित्यकार, पाठक, प्रकाशक की सोच को पूरी तरह बदलने की सारी कोशिश की गई। अपनी सोच के अनुसार साहित्य के मापदण्ड बदले गये। सरकार के साथ मिलकर पुरस्कार व सम्मानों के द्वारा साहित्यकारों को जबरन अपने विचार व नये गढ़े मापदण्डों के आधार पर साहित्य रचने के लिये मजबूर किया गया। विश्वविद्यालयीन शोध कार्य, छात्रवृत्ति के द्वारा नयी प्रतिभाओं का मानस केवल बदला ही नहीं गया, अपितु भारतीय संस्कृति, धर्म, इतिहास देश, देशभक्ति के प्रति हीनता की भावना से भरा भी गया। भारतीय परंपरा, सभा, रीति-रिवाजों के को कूढ़मग्जता, पुरातनपंथी बताकर समाज में भेद, वृणा, वैमनस्यता उत्पन्न की गयी। वर्ण-वर्ग-जाति द्वेष को उभारा गया। सत्र प्रकार से समाज में असंतोष निर्माण किया गया।
सरकार, प्रशासन व शिक्षा विभाग के साथ विश्वविद्यालय व पुस्तकालयों के लिये पुस्तकों की खरीद पर ओजमाकर प्रकाशकों व साहित्यकारों को अपनी इच्छा के अनुसार साहित्य लखन के लिये बाध्य किया गया। पुस्तकों का प्रकाशन, लेखक व लेखन की सुपवता, रचनात्मकता, विषयवस्तु के स्थान पर अपने लेखकों को बढ़ावा देने के लिये किया और उनसे मनमाफिक विषयों पर पुस्तकों को लिखवाया गया।
भारतीय साहित्यकार सामान्यतः मान, सम्मान, मर्यादा का हामी रहा है। इन चीजों के लिये वह कभी भी याचक नहीं रहा। वह हमेंशा प्रसिद्धि पण्डमुख रहा। उसकी रचनाधर्मिता धन की अभीप्सा से सदैव दूर रही। लेकिन इस दौर में इन सारी मान्यताओं को उलट दिया गया। साहित्यकार अपने मान-सम्मान को छोड़, पुरस्कार तथा शासकीय सम्मान का याचक हो गया। पुरस्कार व सम्मान प्राप्ति की एकमात्र योग्यता लांगुलचालन की क्षमता रह गयी। इस प्रवृत्ति के कारण अच्छा साहित्य व माहित्यकार एक प्रकार से मुख्य धारा से अलग-थलग पड़ गये।
साहित्य की गुणवत्ता, विषय और रचनात्मक कौशल्य पर जनता के द्वारा प्रशंसा, सराहना, मान्यता व प्रसिद्धि मिलना सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है। परन्तु स्थिति बदल गयी और स्वाभाविक प्रसिद्ध से प्रतिष्ठित होने के स्थान पर साहित्यकार को स्थापित किये जाने का खेल खेला गया।
साहित्यक की समीक्षा किया जाना आवश्यक होता है। इससे सामान्य पाठक को साहित्य के बारे में उचित जानकारी होती है। परन्तु समीक्षा के पुराने मापदण्डों के स्थान पर समीक्षा का पूरा ढांचा बदल दिया गया। उसकी अन्तिम परिणति यह हुई की साहित्य की समीक्षा, वास्तविक समीक्षा न रही और वह समीक्षक की पसंद- नापसंद का विषय हो गयी। साहित्यकार व समीक्षक के संबंधों के आधार पर समीक्षा होने लगी। समीक्षा समीक्षक की पसंद या नापसंद का विषय हो गयी। इस शस्त्र के माध्यम से अच्छे से अच्छे साहित्यकारों को गैरसाहित्यकार घोषित किया गया। भारत की मुख्य धारा के साहित्यकारों के साहित्य को पूरी तरह से नकारा ही नहीं गया, बल्कि उन्हें साहित्यिक आयोजनों से बाहर कर दिया गया। यहाँ तक की उन्हें साहित्यिक आयोजनों के निमंत्रण पत्र के लायक तक नहीं समझा गया।
साहित्य की सबसे बड़ी कसौटी साहित्य का पाठक वर्ग होता है। इस सारे खेल में यह कह कर कि पुस्तक का बिकना अथवा पाठक की प्रशंसा अच्छे साहित्य की अनिवार्यता नहीं है। इस जुमले के सहारे साहित्य के लिये पाठक की आवश्यकता को ही नकारा दिया गया। साहित्य की केवल एकमात्र कसौटी रह गई कि यदि हमने कहा है कि साहित्य अच्छा है तो अच्छा है, बाकी किसी बात की आवश्यकता नहीं है। यही कारण है कि आज का पाठक आधुनिक साहित्यकारों का साहित्य तो दूर रहा उनके नाम तक नहीं जानता। इन कारणों से साहित्य जगत का पूरा वातावरण ही बदल गया।
यह इतिहास की एक दुर्घटना ही थी जिसके भीषण दुष्परिणामों की ओर कतिपय सजग साहित्यकर्मियों का ध्यान स्वभावतः जाना था। वे अच्छे साहित्य की निर्मिति, साहित्यकार के संगोपन तथा पाठक वर्ग की अभिरूचि विकसित करने के साथ-साथ साहित्य के क्षेत्र में फैले प्रदूषण को दूर करने की जरूरत अनुभव कर रहे थे। इन्ही सारी बातों को ध्यान में रख कर साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय विचार की पुनर्स्थापना, साहित्य में सकारात्मकता, अच्छे साहित्य का प्रचार-प्रसार तथा साहित्यिक जगत के वातावरण के प्रदूषण को दूर करने के लिये साहित्य क्षेत्र में कार्य के शुरूआत की की गयी।
साहित्य के महत्व की ओर इंगित करते हुए राष्ट्रकवि नामधारी सिंह दिनकर
लिखते है – ‘साहित्य में भारतीय दृष्टिकोण की स्थापना इसलिये आवश्यक है
क्योंकि भारत जिन मूल्यों के लिये लड़ रहा है, वे मूल्य केवल भारत के नहीं, सारे संसार के है। हम आधुनिकता की ताकत और प्राचीनता के संतोष भाव को मिलाना चाहते है। विज्ञान के बल से संसार के उन्नतशील देश और भी अधिक शक्तिशाली होते जा रहे है। किन्तु ज्यों-ज्यों उनकी सम्पदा और शक्ति बढ़ती जाती है, उनके संन्तोष और शान्ति का हास होता जाता है। हमें भारत में वह भाग निकालना है जिससे विज्ञान को अपनाकर भी हम उसके दास न बन जायें। हमारी संपदा व शक्ति अवश्य बढ़े, लेकिन हम रुपये के पीछे पागल न हो जायें। वस्तुतः भारत को अपनी संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ अंश को भी बचाना है और पाश्चात्य संस्कृति के भी सर्वोत्तम भाग को स्वीकार करना है। भारत की विशेषता अध्यात्म है और पाश्चात्य जगत् की विशेषता विज्ञान है। हम इन्हीं दो तत्त्वों का समन्वय करना चाहते हैं।’
साहित्य परिषद के रूप में भारतीय जनजीवन का वही परम्परा-प्राप्त राष्ट्रीयता -बोध साकार हुआ जो चिंतन को एकाङिग्ता और विपथगामिता से बचाकर समग्रता और यथार्थता के राजमार्ग पर लाने को उद्यत था। 1964-65 में जीतसिंह जीत और आनन्द आदीश ने भारतीय साहित्यकार संघ नाम से साहित्यकारों को संगठित करने का काम प्रारंभ किया। जीतसिंह जीत संगठन मंत्री व आनन्द आदीश मंत्री के रूप में काम करते थे। दोनों ने भारतीय साहित्यकार संघ का काम दिल्ली, गाजियाबाद, मेरठ और मुरादनगर तक विस्तारित किया। काम को अधिकृत तथा व्यवस्थित स्वरूप देने के लिये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह श्री माधवराम मूले से दोनों ने भेंट कर अब तक किये गये काम के बारे में बताया और आगे के लिये मागदर्शन करने का निवेदन किया। मुले जी ने कहा कि पहले आप लोग साहित्यकारों के संगठन के उद्देश्य, लक्ष्य, कार्यक्रम, पद्धति के बारे में संपूर्ण विचार कर रूपरेखा तैयार कर लें, तब इस विषय में निर्णय करेंगे। इस बीच नवभारत टाइम्स के संपादकीय विभाग में कार्यरत श्री रत्नसिंह शाण्डिल्य भी इनसे जुड़े और संगठन की रूपरेखा बनने लगी।
राष्ट्रवादी विचारों के सजग साहित्यकार, मनीषी एवं बुद्धिजीवियों ने गहन विचार-विमर्श के पश्चात् भारतीय साहित्य परिषद का प्रारूप तैयार किया। अंत में एक बैठक चांदनी चैक स्थित मारवाड़ी पुस्तकालय में बुलायी गयी और उसमें घोषणा की गयी की भारतीय साहित्य परिषद के नाम से साहित्यकारों के बीच कार्य किया जायेगा। यह भी तय हुआ कि रत्नसिंह शाण्डिलय राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में संगठन के कार्य का विस्तार देश भर में करने का प्रयास करेंगे और जीतसिंह जीत तथा आनन्द आदीश दिल्ली के काम को मजबूती प्रदान करेंगे। क्योंकि दिल्ली देश का केन्द्र होने के कारण दिल्ली में परिषद का सुदृढ़ होना जरूरी है। प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार रत्नसिंह शांडिल्य के संयोजकत्व में परिषद के सार्वदेशिक विस्तार और गठन के लिये एक समिति गठित की गयी। इस समिति के अन्य सदस्य थे – श्री बांकेबिहारी भटनागर, श्री गयाप्रसाद त्रिवेदी (दिल्ली), प्रो.सुरेशचन्द्र (हिमाचल), डॉ. मनोहरलाल आनन्द, डॉ. धर्मपाल सिंहल (पंजाब), श्री शिवप्रसाद खण्डेलवाल (हरियाणा), श्री गजेन्द्रसिंह सोलंकी (राजस्थान) तथा डॉ. धर्म प्रसाद (चण्डीगढ़)। दिल्ली में 286 सदस्य बने और परिषद की कार्यकारिणी का गठन किया गया, जिसके प्रथम अध्यक्ष बने प्रसिद्ध पत्रकार श्री बांके बिहारी भटनागर।
इस प्रकार आश्विन शुक्ल द्वादशी संवत् 2023, तद्नुसार 27 अक्टूबर 1966 को परिषद का कार्य विधिवत प्रारंभ हुआ। परिषद के गठन के पश्चात् पहला कार्यक्रमा नवसंवत्सर के अवसर पर किया गया। दिल्ली के सपू्र हाउस में साहित्य समारोह किया गया, जिसका उद्घाटन केन्द्रीय शिक्षा मंत्री भगवत झा आजाद ने किया। प्रसिद्ध नाटककार सेठ गोविन्ददास मुख्य अतिथि थे। भाई महावीर मुख्य वक्ता थे।
दिल्ली में पण्डित सातवलेकर जी का नागरिक अभिनन्दन रामलीला मैदान पर होना था। भारतीय साहित्य परिषद एक संस्था के रूप में उस अभिनन्दन समारोह में सम्मिलित हुई और पण्डित सातवलेकर जी का सम्मान किया। सातवलेकर जी का सम्मान करने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक पूजनीय माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरुजी) दिल्ली पधारे थे। भारतीय साहित्य परिषद के प्रमुख कार्यकर्ताओं ने पूजनीय गुरुजी से भेंट की और उनके द्वारा किये जा रहे कार्य की जानकारी दी। पूजनीय गुरुजी ने भारतीय साहित्य परिषद को अपना आशीर्वाद दिया। एक प्रकार से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मान्यता प्राप्त हो जाने से सभी गदगद थे और दुगने उत्साह से काम में जुट गये।
इसके बाद दिल्ली में साहित्यकारों से सम्पर्क करने, उनको भारतीय साहित्य परिषद से जोड़ने के काम ने जोर पकड़ा। दिल्ली के प्रत्येक जिले में परिषद की इकाई स्थापित हो गई। पहले साप्ताहिक हिन्दुस्थान के सेवानिवृत्त संपादक बांकेबिहारी भटनागर को और बाद में प्रसिद्ध उपन्यासकार जैनेन्द्र कुमार जी को दिल्ली प्रदेश का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। दरियागंज के पुस्तकालय में नियमित रूप से गोष्ठी का आयोजन होता था। सामान्यतः पुस्तकों की समीक्षा की जाती थी। जैनेन्द्रकुमार जी प्रत्येक संगोष्ठी में उपस्थित होते थे और पूरे समय रहते थे। इस गोष्ठी में सस्ता साहित्य मण्डल के अध्यक्ष यशपाल जैन, कमलारत्नम, डॉ. सत्यपाल चुघ भी आते थे। धीरे-धीरे दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक व शोधार्थी भी गोष्ठी से जुड़े।
उधर रत्नसिंह शाण्डिल्य देश भर में भारतीय साहित्य परिषद के कार्य को विस्तार देने के लिये प्रयत्नशील थे। उनके प्रयासों को सफलता भी मिल रही थी। परिषद को राष्ट्रीय स्वरूप देने पर विचार किया गया और आगामी योजना तैयार की गयी।
21 अक्टूबर 1966 को जैनेन्द्र कुमार जी को परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष का दायित्व दिया गया और आश्विन शुक्ल द्वादशी विक्रमी सम्वत् 2023, तदनुसार 27 अक्टूबर 1966 को अखिल भारतीय साहित्य परिषद नामाभिधान से परिषद का विधिवत गठन किया गया। 10-11 फरवरी 1967 को परिषद का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन करने का निर्णय लिया गया।
रत्नसिंह शाण्डिल्य नवभारत टाइम्स में किसानों के समाचारों वाले पृष्ठ का काम देखते थे। भारतीय किसान संघ के काम की आवश्यकता को देखते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें किसान संघ का काम करने के लिये कहा। अतः उन्हें भारतीय साहित्य परिषद के दायित्व से मुक्त करना पड़ा। उनके स्थान पर डॉ. सत्यव्रत सिन्हा को परिषद का राष्ट्रीय महामंत्री बनाया गया। आगे चल कर डॉ. सत्यव्रत सिन्हा आपातकाल का शिकार हुए और उसी में शहीद हो गये।
देश भर में कार्यविस्तार हो रहा था कि 1975 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिये देश पर आपातकाल थोप दिया। भारतीय लोकतंत्र को आपतकालरूपी राहू का ग्रहण लगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट दिया गया। अन्य संस्थाओं की तरह परिषद का गला कस कर घोंटा गया। जगह-जगह छापे मारे जा रहे थे। संदेह के आधार पर ही लोगों को जेलों में ठूंसा जा रहा था। परिषद के अनेकानेक कार्यकर्ताओं जेलों में डाल दिया गया था। सारे कागज पत्र नष्ट हो जाने कारण आपातकाल के पहले की जानकारी श्रुति परम्परा में ही शेष रह गयी। सारे कागज पत्र नये सिरे से तैयार किये गये।
आपातकाल समाप्त हुआ और फिर से स्वतन्त्रता सूर्य उदित हुआ। परन्तु भारतीय साहित्य परिषद का कार्य पूरी तरह तहस-नहस हो चुका था। आपातकाल के अपरिमित कष्टों को भुगत चुके और फिर से अपने जीवन, परिवार को व्यवस्थित करने में जुटे कार्यकत्र्ताआंे को परिषद के काम में सक्रिय करने का दुष्कर कार्य सामने था। आपतकाल की काली छाया देश से हटने के बाद फिनिक्स पक्षी की भांति परिषद अपनी ही राख से पुनः उठ खड़ी हुई। मंथर गति से ही क्यों न हो, परिषद में पुनः जीवन का संचार होना प्रारम्भ हुआ।
एक तदर्थ समिति गठित की गयी जिसके अध्यक्ष नियुक्त किये गये दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. रमानाथ त्रिपाठी और महासचिव बनाये गये ओजस्वी कवि जीतसिंह जीत। दोनों ने अतिरिक्त सक्रियता दिखाते हुए संगठन में पुनः प्राण फूंकने का काम किया। धन के अभाव में वे अपने वेतन के बड़े भाग को संगठन के काम लगाते हुए प्रवास व कार्यक्रम करते रहे। अकेले के प्रयास व प्रवास से कार्य विस्तार करना कठिन था। परन्तु अपनी श्रद्धा व निष्ठा के बल पर वे किसी प्रकार भारतीय साहित्य परिषद को संजीवन बनाये हुए थे।
नियमित रूप से सूचना देने, सबसे सम्पर्क बनाये रखने के लिये एक मासिक पत्रक की आवश्यकता अनुभव हो रही थी, परन्तु धन का अभाव आड़े आ रहा था। अतः हस्तलिखित पत्रक निकाला जाने लगा। उस समय के चलन के अनुसार हस्तलिखित पत्रक को सायकलोस्टाइल कर स्थान-स्थान पर भेजा जाता था। उसका अच्छा प्रतिसाद मिला। देश भर में हलचल होने लगी। तब उत्साहित होकर उसके आकार-प्रकार को बदला गया। धन का अभाव बना ही हुआ था। फिर भी 10 पृष्ठ की सायक्लोस्टाइल पत्रिका ‘परिषद संवाद’ के नाम से प्रारंभ की गयी। पंजीयन के समय ‘परिषद संवाद’ नाम स्वीकार न किये जाने के कारण उसका नाम बदल कर ‘साहित्य परिक्रमा’ रखा और 1998 से पत्रिका मुद्रित रूप में प्रकाशित होने लगी। दिल्ली निवासी डॉ. योगेन्द्र गोस्वामी को पत्रिका के संपादन की जिम्मेदारी दी गयी, प्रबंधन का काम जीतसिंह जीत के पास रहा। तब से आज तक पत्रिका नियममित रूप से प्रकाशित हो रही है।
आपातकाल के बाद परिषद के छिन्न-विछिन्न कार्य को पुनः संगठित करने की आवश्यकता थी। अतः एक एक राष्ट्रीय तदर्थ समिति गठित की गयी। पंजीयन कार्यालय ने ‘भारतीय साहित्य परिषद ’ के नाम से पंजीकरण स्वीकार नहीं किया। इसलिये नवीन पंजीकरण ‘अखिल भारतीय परिषद न्यास’ के नाम से कार्य होने लगा। न्यास के संविधान में व्यवस्था की गयी कि साहित्यिक गतिविधियों का संचालन करने के लिये न्यास एक समिति बनायेगा और सारी गतिविधियां वह समिति करेगी। ‘अखिल भारतीय साहित्य परिषद ’ के नाम से समिति गठित की गयी। अब यही समिति साहित्यिक गतिविधियों का संचालन करती है।
यह प्रावधान भी रखा गया कि जो साहित्यिक संस्थाएं समान उद्देश्य को लेकर पहले से काम कर रही हैं और अखिल भारतीय साहित्य परिषद के साथ काम करना चाहती हैं, पर अपने इतिहास, परिसम्पत्तियों, पंजीकरण नियम आदि के कारण अपना अस्तित्व परिषद में विलीन नहीं कर सकती हैं, वे अपना अलग अस्तित्व बनाये रखते हुए भी परिषद से संबंद्धता लेकर साथ में काम कर सकती हैं। परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री सूर्यकृष्ण जी के पास साहित्य परिषद के अतिरिक्त अधिवक्ता परिषद के संगठन मंत्री तथा झंडेवालां मंदिर न्यास का दायित्व भी था। उस कारण परिषद के कार्य के लिये पूरा समय देना संभव नहीं था। उच्च रक्तचाप तथा मधुमेह के रोग के होते हुए भी प्रवास कर रहे थे, परन्तु 1999 में हृदयाघात के बाद वह भी कठिन हो गया। अतः मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से दोनों संगठनों के लिये सह संगठन मंत्री देने की बात हुई। सन् 2000 में श्री श्रीधर पराडकर जो संघ के प्रचारक हैं को परिषद में सह संगठन मंत्री के नाते कार्य करने के लिये दिया गया। श्री श्रीधर पराडकर के सक्रिय होने के बाद उनके प्रवास शुरू हुए और परिषद के कार्य को सांगठनिक स्वरूप प्राप्त होने लगा।
इस प्रकार दिल्ली से प्रारम्भ हुई परिषद साहित्य के क्षेत्र में भारतीय दृष्टिकोण को स्थापित करने, देश के बौद्धिक वातावरण को स्वस्थ बनाने, समस्त भारतीय भाषाओं एवं उनके साहित्य का संरक्षण करने तथा नवोदित साहित्यकारों को प्रोत्साहन देते हुए कार्य करने वाली संस्था के रूप सक्रिय है। आज देश के सभी प्रान्तों में साहित्य के माध्यम से आत्मचेतस् भारत के निर्माण के बृहद उद्देश्य से ‘वैचारिक स्वराज्य’ की स्थापना के अपने संकल्प को साकार करने हेतु सतत प्रयत्नशील है। अखिल भारतीय साहित्य परिषद , साहित्य परिषद अपने स्थापना काल से ही विभिन्न भारतीय भाषाओं के सर्जनात्मक एवं आलोचनात्मक लेखन में भारत-भक्ति के भाव के जागरण का कार्य एकाग्रचित्त से कर रही है।
भारत की सभी भाषाओं के साहित्यकारों को एकसाथ एक मंच पर लाने में सफल रही है। भाषा विवाद को एक ओर रख कर अपने आयोजनों के माध्यम से इस विवाद का प्रत्यक्ष समाधान करने की दिशा में सफलता प्राप्त की है। पश्चिम प्रेरित आधुनिकता और वामपंथ समर्थित यथार्थवाद ने भारतीय साहित्य को अपनी जड़ों से काटने का काम किया है, उससे हट कर जड़ों से जुड़े शाश्वत विचारों तथा भारतीय जीवन मूल्यों को पुनः स्थापित करने हेतु प्रयत्नशील है और अपनी उपस्थिति व अस्तित्व को जता भी रही है।