अखिल भारतीय साहित्य परिषद्

पृष्ठभूमि

अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की पृष्ठभूमि

साहित्य परिषद  के रूप में भारतीय जनजीवन का वही परम्परा-प्राप्त राष्ट्रीयता -बोध साकार हुआ जो चिंतन को एकाङिग्ता और विपथगामिता से बचाकर समग्रता और यथार्थता के राजमार्ग पर लाने को उद्यत था। 1964-65 में जीतसिंह जीत और आनन्द आदीश ने भारतीय साहित्यकार संघ नाम से साहित्यकारों को संगठित करने का काम प्रारंभ किया। जीतसिंह जीत संगठन मंत्री व आनन्द आदीश मंत्री के रूप में काम करते थे। दोनों ने भारतीय साहित्यकार संघ का काम दिल्ली, गाजियाबाद, मेरठ और मुरादनगर तक विस्तारित किया। काम को अधिकृत तथा व्यवस्थित स्वरूप देने के लिये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह श्री माधवराम मूले से दोनों ने भेंट कर अब तक किये गये काम के बारे में बताया और आगे के लिये मागदर्शन करने का निवेदन किया। मुले जी ने कहा कि पहले आप लोग साहित्यकारों के संगठन के उद्देश्य, लक्ष्य, कार्यक्रम, पद्धति के बारे में संपूर्ण विचार कर रूपरेखा तैयार कर लें, तब इस विषय में निर्णय करेंगे। इस बीच नवभारत टाइम्स के संपादकीय विभाग में कार्यरत श्री रत्नसिंह शाण्डिल्य भी इनसे जुड़े और संगठन की रूपरेखा बनने लगी।

राष्ट्रवादी विचारों के सजग साहित्यकार, मनीषी एवं बुद्धिजीवियों ने गहन विचार-विमर्श के पश्चात् भारतीय साहित्य परिषद  का प्रारूप तैयार किया। अंत में एक बैठक चांदनी चैक स्थित मारवाड़ी पुस्तकालय में बुलायी गयी और उसमें घोषणा की गयी की भारतीय साहित्य परिषद  के नाम से साहित्यकारों के बीच कार्य किया जायेगा। यह भी तय हुआ कि रत्नसिंह शाण्डिलय राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में संगठन के कार्य का विस्तार देश भर में करने का प्रयास करेंगे और जीतसिंह जीत तथा आनन्द आदीश दिल्ली के काम को मजबूती प्रदान करेंगे। क्योंकि दिल्ली देश का केन्द्र होने के कारण दिल्ली में परिषद  का सुदृढ़ होना जरूरी है। प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार रत्नसिंह शांडिल्य के संयोजकत्व में परिषद  के सार्वदेशिक विस्तार और गठन के लिये एक समिति गठित की गयी। इस समिति के अन्य सदस्य थे – श्री बांकेबिहारी भटनागर, श्री गयाप्रसाद त्रिवेदी (दिल्ली), प्रो.सुरेशचन्द्र (हिमाचल), डॉ. मनोहरलाल आनन्द, डॉ. धर्मपाल सिंहल (पंजाब), श्री शिवप्रसाद खण्डेलवाल (हरियाणा), श्री गजेन्द्रसिंह सोलंकी (राजस्थान) तथा डॉ. धर्म प्रसाद (चण्डीगढ़)। दिल्ली में 286 सदस्य बने और परिषद  की कार्यकारिणी का गठन किया गया, जिसके प्रथम अध्यक्ष बने प्रसिद्ध पत्रकार श्री बांके बिहारी भटनागर।

 इस प्रकार आश्विन शुक्ल द्वादशी संवत् 2023, तद्नुसार 27 अक्टूबर 1966 को परिषद  का कार्य विधिवत प्रारंभ हुआ। परिषद  के गठन के पश्चात् पहला कार्यक्रमा नवसंवत्सर के अवसर पर किया गया। दिल्ली के सपू्र हाउस में साहित्य समारोह किया गया, जिसका उद्घाटन केन्द्रीय शिक्षा मंत्री भगवत झा आजाद ने किया। प्रसिद्ध नाटककार सेठ गोविन्ददास मुख्य अतिथि थे। भाई महावीर मुख्य वक्ता थे। 

दिल्ली में पण्डित सातवलेकर जी का नागरिक अभिनन्दन रामलीला मैदान पर होना था। भारतीय साहित्य परिषद  एक संस्था के रूप में उस अभिनन्दन समारोह में सम्मिलित हुई और पण्डित सातवलेकर जी का सम्मान किया। सातवलेकर जी का सम्मान करने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक पूजनीय माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरुजी) दिल्ली पधारे थे। भारतीय साहित्य परिषद  के प्रमुख कार्यकर्ताओं ने पूजनीय गुरुजी से भेंट की और उनके द्वारा किये जा रहे कार्य की जानकारी दी। पूजनीय गुरुजी ने भारतीय साहित्य परिषद  को अपना आशीर्वाद दिया। एक प्रकार से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मान्यता प्राप्त हो जाने से सभी गदगद थे और दुगने उत्साह से काम में जुट गये।

इसके बाद दिल्ली में साहित्यकारों से सम्पर्क करने, उनको भारतीय साहित्य परिषद  से जोड़ने के काम ने जोर पकड़ा। दिल्ली के प्रत्येक जिले में परिषद  की इकाई स्थापित हो गई। पहले साप्ताहिक हिन्दुस्थान के सेवानिवृत्त संपादक बांकेबिहारी भटनागर को और बाद में प्रसिद्ध उपन्यासकार जैनेन्द्र कुमार जी को दिल्ली प्रदेश का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। दरियागंज के पुस्तकालय में नियमित रूप से गोष्ठी का आयोजन होता था। सामान्यतः पुस्तकों की समीक्षा की जाती थी। जैनेन्द्रकुमार जी प्रत्येक संगोष्ठी में उपस्थित होते थे और पूरे समय रहते थे। इस गोष्ठी में सस्ता साहित्य मण्डल के अध्यक्ष यशपाल जैन, कमलारत्नम, डॉ. सत्यपाल चुघ भी आते थे। धीरे-धीरे दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक व शोधार्थी भी गोष्ठी से जुड़े।

उधर रत्नसिंह शाण्डिल्य देश भर में भारतीय साहित्य परिषद  के कार्य को विस्तार देने के लिये प्रयत्नशील थे। उनके प्रयासों को सफलता भी मिल रही थी। परिषद  को राष्ट्रीय स्वरूप देने पर विचार किया गया और आगामी योजना तैयार की गयी।

21 अक्टूबर 1966 को जैनेन्द्र कुमार जी को परिषद  के राष्ट्रीय अध्यक्ष का दायित्व दिया गया और आश्विन शुक्ल द्वादशी विक्रमी सम्वत् 2023, तदनुसार 27 अक्टूबर 1966 को अखिल भारतीय साहित्य परिषद  नामाभिधान से परिषद  का विधिवत गठन किया गया। 10-11 फरवरी 1967 को परिषद  का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन करने का निर्णय लिया गया।

रत्नसिंह शाण्डिल्य नवभारत टाइम्स में किसानों के समाचारों वाले पृष्ठ का काम देखते थे। भारतीय किसान संघ के काम की आवश्यकता को देखते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें किसान संघ का काम करने के लिये कहा। अतः उन्हें भारतीय साहित्य परिषद  के दायित्व से मुक्त करना पड़ा। उनके स्थान पर डॉ.  सत्यव्रत सिन्हा को परिषद  का राष्ट्रीय महामंत्री बनाया गया। आगे चल कर डॉ.  सत्यव्रत सिन्हा आपातकाल का शिकार हुए और उसी में शहीद हो गये।

देश भर में कार्यविस्तार हो रहा था कि 1975 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिये देश पर आपातकाल थोप दिया। भारतीय लोकतंत्र को आपतकालरूपी राहू का ग्रहण लगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट दिया गया। अन्य संस्थाओं की तरह परिषद  का गला कस कर घोंटा गया। जगह-जगह छापे मारे जा रहे थे। संदेह के आधार पर ही लोगों को जेलों में ठूंसा जा रहा था। परिषद  के अनेकानेक कार्यकर्ताओं जेलों में डाल दिया गया था। सारे कागज पत्र नष्ट हो जाने कारण आपातकाल के पहले की जानकारी श्रुति परम्परा में ही शेष रह गयी। सारे कागज पत्र नये सिरे से तैयार किये गये।

आपातकाल समाप्त हुआ और फिर से स्वतन्त्रता सूर्य उदित हुआ। परन्तु भारतीय साहित्य परिषद  का कार्य पूरी तरह तहस-नहस हो चुका था। आपातकाल के अपरिमित कष्टों को भुगत चुके और फिर से अपने जीवन, परिवार को व्यवस्थित करने में जुटे कार्यकत्र्ताआंे को परिषद  के काम में सक्रिय करने का दुष्कर कार्य सामने था। आपतकाल की काली छाया देश से हटने के बाद फिनिक्स पक्षी की भांति परिषद  अपनी ही राख से पुनः उठ खड़ी हुई। मंथर गति से ही क्यों न हो, परिषद  में पुनः जीवन का संचार होना प्रारम्भ हुआ।

एक तदर्थ समिति गठित की गयी जिसके अध्यक्ष नियुक्त किये गये दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ.  रमानाथ त्रिपाठी और महासचिव बनाये गये ओजस्वी कवि  जीतसिंह जीत। दोनों ने अतिरिक्त सक्रियता दिखाते हुए संगठन में पुनः प्राण फूंकने का काम किया। धन के अभाव में वे अपने वेतन के बड़े भाग को संगठन के काम लगाते हुए प्रवास व कार्यक्रम करते रहे। अकेले के प्रयास व प्रवास से कार्य विस्तार करना कठिन था। परन्तु अपनी श्रद्धा व निष्ठा के बल पर वे किसी प्रकार भारतीय साहित्य परिषद  को संजीवन बनाये हुए थे।

नियमित रूप से सूचना देने, सबसे सम्पर्क बनाये रखने के लिये एक मासिक पत्रक की आवश्यकता अनुभव हो रही थी, परन्तु धन का अभाव आड़े आ रहा था। अतः हस्तलिखित पत्रक निकाला जाने लगा। उस समय के चलन के अनुसार हस्तलिखित पत्रक को सायकलोस्टाइल कर स्थान-स्थान पर भेजा जाता था। उसका अच्छा प्रतिसाद मिला। देश भर में हलचल होने लगी। तब उत्साहित होकर उसके आकार-प्रकार को बदला गया। धन का अभाव बना ही हुआ था। फिर भी 10 पृष्ठ की सायक्लोस्टाइल पत्रिका ‘परिषद  संवाद’ के नाम से प्रारंभ की गयी।  पंजीयन के समय ‘परिषद  संवाद’ नाम स्वीकार न किये जाने के कारण उसका नाम बदल कर ‘साहित्य परिक्रमा’ रखा और 1998 से पत्रिका मुद्रित रूप में प्रकाशित होने लगी। दिल्ली निवासी डॉ.  योगेन्द्र गोस्वामी को पत्रिका के संपादन की जिम्मेदारी दी गयी, प्रबंधन का काम जीतसिंह जीत के पास रहा। तब से आज तक पत्रिका नियममित रूप से प्रकाशित हो रही है।

आपातकाल के बाद परिषद  के छिन्न-विछिन्न कार्य को पुनः संगठित करने की आवश्यकता थी। अतः एक एक राष्ट्रीय तदर्थ समिति गठित की गयी। पंजीयन कार्यालय ने ‘भारतीय साहित्य परिषद ’ के नाम से पंजीकरण स्वीकार नहीं किया। इसलिये नवीन पंजीकरण ‘अखिल भारतीय परिषद  न्यास’ के नाम से कार्य होने लगा। न्यास के संविधान में व्यवस्था की गयी कि साहित्यिक गतिविधियों का संचालन करने के लिये न्यास एक समिति बनायेगा और सारी गतिविधियां वह समिति करेगी। ‘अखिल भारतीय साहित्य परिषद ’ के नाम से समिति गठित की गयी। अब यही समिति साहित्यिक गतिविधियों का संचालन करती है।

            यह प्रावधान भी रखा गया कि जो साहित्यिक संस्थाएं समान उद्देश्य को लेकर पहले से काम कर रही हैं और अखिल भारतीय साहित्य परिषद  के साथ काम करना चाहती हैं, पर अपने इतिहास, परिसम्पत्तियों, पंजीकरण नियम आदि के कारण अपना अस्तित्व परिषद  में विलीन नहीं कर सकती हैं, वे अपना अलग अस्तित्व बनाये रखते हुए भी परिषद  से संबंद्धता लेकर साथ में काम कर सकती हैं। परिषद  के राष्ट्रीय संगठन मंत्री सूर्यकृष्ण जी के पास साहित्य परिषद  के अतिरिक्त अधिवक्ता परिषद  के संगठन मंत्री तथा झंडेवालां मंदिर न्यास का दायित्व भी था। उस कारण परिषद  के कार्य के लिये पूरा समय देना संभव नहीं था। उच्च रक्तचाप तथा मधुमेह के रोग के होते हुए भी प्रवास कर रहे थे, परन्तु 1999 में हृदयाघात के बाद वह भी कठिन हो गया। अतः मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से दोनों संगठनों के लिये सह संगठन मंत्री देने की बात हुई। सन् 2000 में श्री श्रीधर पराडकर जो संघ के प्रचारक हैं को परिषद  में सह संगठन मंत्री के नाते कार्य करने के लिये दिया गया। श्री श्रीधर पराडकर के सक्रिय होने के बाद उनके प्रवास शुरू हुए और परिषद  के कार्य को सांगठनिक स्वरूप प्राप्त होने लगा।

इस प्रकार दिल्ली से प्रारम्भ हुई परिषद  साहित्य के क्षेत्र में भारतीय दृष्टिकोण को स्थापित करने, देश के बौद्धिक वातावरण को स्वस्थ बनाने, समस्त भारतीय भाषाओं एवं उनके साहित्य का संरक्षण करने तथा नवोदित साहित्यकारों को प्रोत्साहन देते हुए कार्य करने वाली संस्था के रूप सक्रिय है। आज देश के सभी प्रान्तों में साहित्य के माध्यम से आत्मचेतस् भारत के निर्माण के बृहद उद्देश्य से ‘वैचारिक स्वराज्य’ की स्थापना के अपने संकल्प को साकार करने हेतु सतत प्रयत्नशील है। अखिल भारतीय साहित्य परिषद , साहित्य परिषद  अपने स्थापना काल से ही विभिन्न भारतीय भाषाओं के सर्जनात्मक एवं आलोचनात्मक लेखन में भारत-भक्ति के भाव के जागरण का कार्य एकाग्रचित्त से कर रही है।

भारत की सभी भाषाओं के साहित्यकारों को एकसाथ एक मंच पर लाने में सफल रही है। भाषा विवाद को एक ओर रख कर अपने आयोजनों के माध्यम से इस विवाद का प्रत्यक्ष समाधान करने की दिशा में सफलता प्राप्त की है। पश्चिम प्रेरित आधुनिकता और वामपंथ समर्थित यथार्थवाद ने भारतीय साहित्य को अपनी जड़ों से काटने का काम किया है, उससे हट कर जड़ों से जुड़े शाश्वत विचारों तथा भारतीय जीवन मूल्यों को पुनः स्थापित करने हेतु प्रयत्नशील है और अपनी उपस्थिति व अस्तित्व को जता भी रही है।